हम मुसाफ़िर; राह से भटके हुए हैं,
इस तरह गंतव्य तक ना जा सकेंगे।
चौसरों में लिप्त करके बुद्धि अपनी,
कुछ शकुनियों ने बहुत ही छल किए हैं।
चाल में घिरते गए उतने कि जितने,
प्रश्न जब हमने यहाँ पर हल किए हैं,
प्रश्न में उत्तर छिपे यह ज्ञात हमको,
दृष्टिबाधित हम; इन्हें ना पा सकेंगे।
इस तरह गंतव्य...
हम युधिष्ठिर के सदृश; जब 'द्रौपदी' को,
जीतने की होड़ करके हार बैठे।
धर्म का वध हाय! तब हमने किया जब,
चित्त का ब्रह्मा स्वयं ही मार बैठे।
मौन मन की ग्लानि है; जिसको कभी भी,
कंठ क्या, ये नैन भी ना गा सकेंगे।
कुछ यहाँ 'धृतराष्ट्र' आँखें खोलकर भी,
ढोंगियों से; मूँद कर बैठे हुए हैं,
भीष्म, द्रोणाचार्य भी निर्लज्ज होकर,
निज अधर पर चुप्प धर बैठे हुए हैं।
हम कुटिल रणव्यूह में फँसने लगे हैं,
चीरकर मझधार को ना आ सकेंगे॥