भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम रहे हैं ज़िन्दगी भर नापते प्यासा सफ़र / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
हम रहे हैं ज़िन्दगी भर नापते प्यासा सफ़र
और कब तक पी सकेंगे मौन का नीला ज़हर।
आज तक बाँचा किए हम भाग्यलिपि तुम से मिली
अब हमारी साँस खुद ही चाहती होना मुखर।
यो किनारों पर खड़े हम रह सकेंगे अब नहीं
खोल दी पालें सभी उत्ताल लहरों का न डर।
ये लरजती सण्टियाँ कब तक बनेंगी वर्जना
देह का हर रोम अब तो है उतारू द्रोह पर।