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हम राज़-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल जान गए हैं / सज्जाद बाक़र रिज़वी
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हम राज़-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल जान गए हैं
फिर भी तेरी आँखों का कहा मान गए हैं
तू शोला-ए-जाँ निकहत-ए-ग़म सौत-ए-तलब है
हम जान-ए-तमन्ना तुझे पहचान गए हैं
क्या क्या न तेरे शौक़ में टूट हैं यहाँ कुफ्र
क्या क्या न तेरी राह में ईमान गए हैं
इस रक़्स में शोले के कोई सहर तो होगा
परवाने बड़ी आन से क़ुर्बान गए हैं
खींचे है मुझे दस्त-ए-जुनूँ दश्त-ए-तलब में
दामन जो बचाए हैं गिरेबान गए हैं
‘बाक़र’ है इसी गर्द-ए-रह-ए-दिल का परस्तार
जिस राह से कुछ साहब-ए-दीवान गए हैं