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हम राह मिरे कोई मुसाफिर न चला था / शबनम शकील

हम राह मिरे कोई मुसाफ़िर न चला था ।
धोका मुझे ख़ुद अपनी ही आहट से हुआ था ।

मस्दूद हुई जिस की हर इक राह सरासर,
उस साफ़ में मुझे ला के खड़ा किस ने किया था ।

जुम्बिश ही से होंटों की जो कुछ समझो तो समझो,
उस गुंग महल में तो बस इतना ही रवा था ।

तामीर हुए घर तो गए जाने कहाँ वो,
जिन ख़ानाबदोशो का यहाँ ख़ेमा लगा था ।

धुँदलाए ख़द-ओ-ख़ाल गर उस के तो अजब क्या
देखे हुए यूँ भी उसे युग बीत गया था ।

शब शोला-बद-अमाँ तो सहर-सोख़्ता सामाँ
दो रूप बदलता था अजब वो भी दिया था ।