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हम रोज निहारीला रहिया / अम्बिकादत्त त्रिपाठी 'व्यास'
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हम रोज निहारीला रहिया हम रोज बहारीला अँगना,
जब-जब भी बयरिया सँसरेले अचके में खनखि जाला कँगना।
तस्वीर बना के हृदया में दुनिया से छिपा रखले बानी,
कब तक ले सँवारीं दर्दे जिगर कब तक ले सँभारीं ई सपना।
कनवाँ के गहनवाँ चुपके से कहि जाला सनेसा आवन के,
मन झन से उठेला झूमि मगर झुकि जाला समझ के भ्रम अपना।
अँसुवन से लिखा करि के पतिया पठईला पवन के पाँखी पर,
अब दरदे बनल बाटे आपन जिनिगी के सुघर सुन्दर सपना।