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हम रौशनी के शह्र में साहब अबस गए / इरशाद खान सिकंदर
Kavita Kosh से
हम रौशनी के शह्र में साहब अबस गए
फिर यूं हुआ की हमपे अँधेरे बरस गए
हमने दुआ बहार की मांगी ज़रूर थी
कैसी बहार आई कि पत्ते झुलस गए
पढ़-पढ़ के सोचता हूँ किताबों की शक्ल में
कितने अज़ीम लोग मिरे घर में बस गए
देखा नज़ारा हमने ये ख्वाबों में ही सही
धरती की इक पुकार पे बादल बरस गए
तजज़ीया कीजियेगा जो मज़हब का दहर में
हर पल में पाइएगा कि दो-चार-दस गए
जिस सम्त भी चलें उसी चेहरे की खोजबीन
आखिर को हम भी उसकी गली ही में बस गए