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हम ललित निबन्ध हो गए / मधु शुक्ला
Kavita Kosh से
गीतों के बन्द हो गए,
पोर -पोर छन्द हो गए ।
पलट रही पुरवाई
पृष्ठ नए मौसम के,
तोड़ रहे सन्नाटे
कोकिल सुर पंचम के,
गहरे अवसादों में,
ठहरे सम्वादों में,
घोल रही हैं सुधियाँ
राग नए सरगम के ।
प्रीति की यूँ बाँसुरी बजी
प्राण घनानन्द हो गए ।
शब्द लगे अखुँवाने
फिर सूनी शाखों में,
अर्थ लगे गहराने
महुआई आँखों में,
बौराए भावों में,
मौसमी भुलावों में,
वायवी उड़ानों के
स्वप्न लिए पाँखों में ।
मन ने आकाश छू लिया
हम ललित निबन्ध हो गए ।
भरमाते हैं मन को
मृग जल इच्छाओं के,
भटक रहे पाने को
छोर हम दिशाओं के,
अनबूझी चाहों के
अन्तहीन राहों के,
सम्मोहन में उलझे
जंगली हवाओं के ।
खुद को खोजते रहे
कस्तूरी गन्ध हो गए ।