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हम सब काशी के पंडे / कुँअर बेचैन
Kavita Kosh से
नन्हें-नन्हें हाथों में
लंबे-लंबे हथकंडे ।
चौड़े-चौड़े चौराहे
सिमटे-सिमटे-से आँगन
खोटे सिक्कों में बिकते
उजले-उजले वृंदावन
अपने अपने घाटों पर
हम सब काशी के पंडे ।
प्यासे-प्यासे होठों को
देकर ह्विस्की की बोतल
ढाल प्राण के प्यालों में
कलयुग का नव गंगाजल
इस दुनिया के होटल में
मौज उड़ाते मुस्टंडे।
चमचों को बादामगिरी
ख़ाली पेटों की थाली
अब भी ख़ाली-ख़ाली है
कल भी थी ख़ाली-ख़ाली
भ्रष्टाचारों के कर में
हैं सच्चाई के झंडे ।