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हम सब बाज़ार / मृत्युंजय प्रभाकर
Kavita Kosh से
कोरा नहीं है दामन कोई
चस्पाँ है वह मेरी भी कलाई पर
एक गर्म कतरा
मेरी ललाट से उतर
पसर रहा है मेरी छाती पर
धार है कि रूकने का नाम ही नहीे लेती
मैंने कहा है जोर से चीख़कर
होली नहीं है कि
बहने दें बदस्तूर
वह रंग
सबके अपने तर्क हैं
और उन्हें बस ख़ुद पर ही यक़ीन है
लोकसभा बना दी गई
इस ज़मीन पर
सुनता कोई भी नहीं है
उस ज़मीन के रिसने पर
कोहराम मचा रहे लोग
यह भूल चुके हैं कि
रिसने वाली ज़मीन का भी
एक नाम है
कुछ रिश्ते हैं
और चंद सपने
उन्हें तलब है
नगदी फसल की
भुना लेना चाहते हैं वे
जमने के पहले ही
कतरा-कतरा
उनके लहू का
बाज़ार के विरोधी भी
उतने ही बाज़ारू हैं
जितने बाज़ार के समर्थक!
रचनाकाल : 16.11.07