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हम समझते थे कि दिलबर हो गया / पुष्पेन्द्र ‘पुष्प’
Kavita Kosh से
हम समझते थे कि दिलबर हो गया
हाय! वो कितना सितमगर हो गया
किस सलीके से निभाई थी वफ़ा
प्यार फिर भी रेत का घर हो गया
कौन पहचाने हमें इस भीड़ में
आइना भी जैसे पत्थर हो गया
देखकर उसकी अदा का बाँकपन
आज हर कोई सुख़नवर हो गया
वस्ल का इक पल मिला जो ख्वाब में
हिज्र का ऊँचा मुक़द्दर हो गया