भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम समझते थे जिन्हे ताबो-तवाँ का पैकर / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
Kavita Kosh से
हम समझते थे जिन्हे ताबो-तवाँ का पैकर
वक़्त पर निकला वही आहो-फ़ुगाँ का पैकर
मतलबो-मौकापरस्ती के है किरदार सभी
किस बलंदी पे है देखो तो जहा‘ं का पैकर
हर तरफ़ अब तो नज़र में है लहू के धब्बे
कितना बदरंग हुआ अम्नो-अमाँ का पैकर
इस ज़माने की घुटन साफ़ बयाँ करती है
कल ज़मीं पर भी गिरा होगा ज़माँ का पैकर
हर तरफ़ झूट नज़र आता है अब इस युग में
कैसा आईना "यक़ीन" और कहाँ का पैकर