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हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं / हरीश प्रधान
Kavita Kosh से
जहाँ मिला चंदी चारा चर रहे हैं
हम सुनहरे कल कीओर बढ़ रहे हैं
आज इस दल में कल उस दल में
दल बदल की राजनीति गढ़ रहे हैं
वंचितों को दे नहीं पाये जो रोटियाँ
चुनावी समर में हाथियों पर चढ़ रहे हैं
भ्रष्ट दुराचारी जेलों में जाने वाले
कुर्सियॉं पकड़ के कैसे अकड़ रहे हैं
संविधान की धज्जियाँ उड़ाने वाले
संसद में पहुँच संविधान गढ़ रहे हैं