भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम से / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर कोई तो कांटों का खरीदार नहीं है
हर कोई टेरर ग़म से महब्बत नहीं करता
है कोई जो सदमों की शिकायत नहीं करता
है कोई जो खुशियों का तलबगार नहीं है

हम हैं कि लहू रोने से फ़ुर्सत नहीं मिलती
सदमों से हमें कोई गिला शिकवा नहीं है
ग़म हमको मिला, कैसे मिला सोचा नहीं है
हम जैसी किसी और की हालत नहीं मिलती

जब नाला-ओ-ग़म आहो फुगां ज़र है हमारा
जब दर्दे जुदाई है तेरे प्यार की दौलत
जब दौलते-दिल है तेरे आज़ार की दौलत
क्यों खाली मये ग़म से ये साग़र है हमारा

क्या दहर में तक़दीर के मारे नहीं होते
होते हैं मगर हम से तो सारे नहीं होते।