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हम से / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
Kavita Kosh से
हर कोई तो कांटों का खरीदार नहीं है
हर कोई टेरर ग़म से महब्बत नहीं करता
है कोई जो सदमों की शिकायत नहीं करता
है कोई जो खुशियों का तलबगार नहीं है
हम हैं कि लहू रोने से फ़ुर्सत नहीं मिलती
सदमों से हमें कोई गिला शिकवा नहीं है
ग़म हमको मिला, कैसे मिला सोचा नहीं है
हम जैसी किसी और की हालत नहीं मिलती
जब नाला-ओ-ग़म आहो फुगां ज़र है हमारा
जब दर्दे जुदाई है तेरे प्यार की दौलत
जब दौलते-दिल है तेरे आज़ार की दौलत
क्यों खाली मये ग़म से ये साग़र है हमारा
क्या दहर में तक़दीर के मारे नहीं होते
होते हैं मगर हम से तो सारे नहीं होते।