भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं / तालीफ़ हैदर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं
मंज़िल से परे दश्त-ए-बला देख रहे हैं

इस शहर में एहसास की देवी नहीं रहती
हर शख़्स के चेहरे को नया देख रहे हैं

इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
इक़रार भी करने का मज़ा देख रहे हैं

तू है भी नहीं और निकलता भी नहीं है
हम ख़ुद को रग-ए-जाँ के सिवा देख रहे हैं

कुछ कह के गुज़र जाएगा इस बार ज़माना
हम उस के तबस्सुम की सदा देख रहे हैं