हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परिशां क्या क्या / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परिशां क्या क्या!
क्या था अफ़्साना-ए-जां और थे उन्वां क्या क्या!
हर नफ़स इक नया अफ़्साना सुना कर गुज़रा
दिल पे फिर बीत गयी शाम-ए-ग़रीबां क्या क्या!
तेरे आवारा कहाँ जायें किसे अपना कहें?
तुझ से उम्मीद थी ऐ शहर-ए-निगारां क्या क्या!
बन्दगी हुस्न की जब से हुई मेराज-ए-इश्क़
सज्दा-ए-कुफ़्र बना हासिल-ए-ईमां क्या क्या!
फ़ासिले और बढ़े मंज़िल-ए- गुमकर्दा के
और हम करते रहे ज़ीस्त के सामां क्या क्या!
धूप और छाँव का वो खेल! अयाज़न बिल्लाह
रंग देखे तिरे ऐ उम्र-ए-गुरेजां क्या क्या!
हाय ये लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी
हमने ख़ुद ढूँढ लिए अपने बयाबां क्या क्या!
हैफ़ "सरवर"! तुझे अय्याम-ए-ख़िज़ां याद नहीं
इश्क़ में है तुझे उम्मीद-ए-बहारां क्या क्या!