हम हैं काबे से ही वाबस्ता, न बुतख़ाने से / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
हम हैं काबे से ही वाबस्ता, न बुतख़ाने से
जो भी निस्बत है वो है दिल के ही वीराने से
कौन सी बात नई है जो मैं उम्मीद करूँ?
दिल ने पहले भी कभी माना है समझाने से?
यूँ रहे शाम-ओ-सहर मह्व-ए-तलाश-ए-काबा
मैकदा में रुके, निकले जो सनमख़ाने से
आज कुछ ऐसी नई तो नहीं हालत मेरी
आप क्यों बनते हैं अब जान के अनजाने से?
दुख मिरा कोई नया हो तो कहूँ दुनिया से
दर्द का रिश्ता है कब का मिरे अफ़साने से
तुझ को मालूम है क्या हाल था आने से तिरे?
देख क्या हाल है अब तेरे चले जाने से
बे-ख़ुदी इश्क़ में इस दर्जा मुझे रास आई
होश उड़ते हैं मिरे, होश का नाम आने से
ग़म ही आग़ाज़-ए-वफ़ा, ग़म ही अन्जाम-ए-जुनूँ
राज़ हम पे ये खुला इश्क़ में ग़म खाने से
रंग बदला नज़र आता है तिरी महफ़िल का
क्या बलानोश कोई उठ गया मैख़ाने से?
हाल ‘सरवर’ का तो पहले भी कहाँ अच्छा था!
हो गये इश्क़ में कुछ और भी दीवाने से