भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम / तेज राम शर्मा
Kavita Kosh से
हम ही बर्फ की तरह
बार-बार गिरते हैं धरती पर
तपती धरा के माथे पर
पट्टी करते से
बहुत दूर जाकर
क्षितिज के उस पार से
तारों के बीच टिमटिमाते
हम ही ढूँढते रहते हैं अपना चेहरा
स्कूली बच्चों के
झुंडों के बीच
अभी-अभी
सिसकियाँ लेते-लेते
चुप हुए हैं हम
सपने में कोई परी
हाथ बढ़ा रही है हमारी ओर
कौन सी बात है वह
जो हमारे मुँह में ही
दबा दी गई
जिसे सुन कर बेचैन हो रही है
पहाड़ी नदी
हम ही चीर रहे हैं
पृथ्वी को बीचों-बीच
उत्तर और दक्षिण में
जिसे रोक नहीं पा रहे हैं
सूरज के रथ के
तेज भागते अश्व भी।