भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हयात मौत का ही एक शाखसाना लगे / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हयात मौत का ही एक शाख़साना लगे
हमें ख़ुद अपनी हक़ीक़त भी इक फ़साना लगे

गुमान, आगही तू, मैं, उमीद, नौमीदी
हमें सभी ग़म-ए-हस्ती का कारख़ाना लगे

जो दर्द है वो तिरे कर्ब की निशानी है
जो साँस है वो तिरा याद का बहाना लगे

परे है सरहद-ए-इद्राक से वुजूद तिरा
अगर मैं सोचूँ तुझे, मुझको इक ज़माना लगे

ये मेरी आरज़ूमन्दी!ये मेरी महरूमी
ख़ुदा ख़ुदा तो रहे पर ख़ुदा ख़ुदा ना लगे

खु़दी ने खोल दिए राज़-ए-बेख़ुदी हम पर
क़दम क़दम पे हमें तेरा आस्ताना लगे

वो तेरी याद की ख़ुश्बू, उमीद की आहट
समंद-ए-शौक़ को गोया कि ताज़याना लगे

ज़माना तुझ को ख़िरदमंद लाख गर्दाने
मगर हमें तो ऐ "सरवर"! तू इक दिवाना लगे