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हरगुन-महोत्सव / प्रवीण कुमार अंशुमान

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दुर्वासा की पावन धरती
सदियों से नाज़ कराती है,
हर साल जयंती नानक की
संगम-नहान बुलाती है ।

उभिरी की मिट्टी में जन्मा
अनुराग सभी का पाया जो,
मधुर प्रीत का शंख बजाने
रमजू का वंशज आया जो ।

जिस नाम पथिक का हरगुन हो
उस राह पतित ना कोई हो,
जिस राजगीर की संतति हम
सब कहते जिसको बाबा हम ।

जब तक बाबा ठहरे तुम
माटी के बने शरीर में,
गुँथा हुआ था ये जग सारा
माले की जंजीर में ।

हम सबको जब छोड़ चले तुम
बेबस और अकेला,
तब जाकर एहसास हुआ
अतरंगी ये मेला ।

तेरा जाना इस धरती से
लगता एक बहाना है,
हम सबको कर एक साथ जो
तेरा एक फ़साना है ।

तेरी माया, तेरी छाया
छूट गयी जब तेरी काया,
तेरे बाद, कैसा नाद
कैसे रहते हम आबाद ?

पर तू जाने किस्सा सारा
कैसे फैला नाम हमारा,
तीर नदी के अपना गाँव
लेकर निकले तेरी छाँव ।

तब कुटिर को उस तेरे
लगे कछुक ना फिर फेरे,
जीवन की डगमग डोली में
हम मस्तानों की टोली में ।

आशाओं का उन्माद बढ़ा
उम्मीदों का परवान चढ़ा,
'जय-भीम' तिलक की रोली में
तृष्णाओं की होली में ।

सोपान शिखर का खोज लिए
जब ध्यान उसी का रोज़ किये,
है स्वाद तुम्हारा हर क्षण में
तुम आज यहीं हो हर पल में ।

तुम थे कभी, अब हो नहीं
हो आज तुम, अब हो यहीं,
इस द्वन्द्व के उस अंश में
अब मन नहीं, उस दंश में ।

अदृश्य लोक के आंगन से
ज्ञात सभी को होता है,
तुम गये नहीं हो अब तक
एहसास सभी को होता है ।

जिस कुटिया के प्रांगण में
ज्योति जलायी थी तुमने
उस मटिया के हर कण में
फूल खिलाये, हम सबने ।

जो पाठ पढ़ाया था तुमने
मिट्टी की खुशबू बन हमने,
उस दीए की लौ बन जाने को
उस दीपक के परवाने को ।

जिसकी मूरत मानी सबने
उसकी सूरत जानी हमने,
आज जड़ों में फूलों के
पानी की प्यास बुझायेंगे ।

इस बग़िया की खुशबू बनकर
सबको आज नचाएंगे,
गीत तेरे उस मंदिर का
मिलकर हम सब गाएंगे ।

कालखण्डों से परे
तेरी महिमा बतलाएंगे,
मीत सभी का बनकर हम
ज्योति-पुंज कहलाएंगे ।

तेरी ऊर्जा मेरे भीतर
प्राण की अग्नि जलाती है,
ज्ञान की वीणा देख तुझे
अविरल धुन बजाती है ।

हृदय जगत में हम सबके
गीत तुम्हीं तो गाते हो,
अलख जगाए, मशाल लिए
जीत तुम्हीं तो जाते हो ।

जिस लोक, जहाँ हो करुणा-भाव
तिस प्रेम भरी हो, जिसकी नाव,
अनुशासन जिसकी शैली हो
श्रद्धा जिसके घर खेली हो ।

माली का एक बग़ीचा देखो
जिसको तुमने सींचा देखो,
न फूल जहाँ कुम्हलाए हों
न शूल जहाँ उग आए हों ।

सुन-सुन जिसको पाया हमने
'गुन'-'गुन' जिसको गाया हमने,
'हर' के 'गुन' के, प्रणय-सूत्र को
आज सभी के गुह्य-निलय को ।

उस सदन की बेदी पर
हम आज तिलक लगायेंगे,
'कार्तिक-पूर्णिमा' की सीमा पर
हर साल यहाँ हम आएंगे
'हरगुन-महोत्सव' की पावन बेला पर
याद तुम्हें कर जाएंगे ।
याद तुम्हें कर जाएंगे ।
हाँ बाबा !
याद तुम्हें कर जाएंगे ।।