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हरदम मिरी अजल मिरे सर पर खड़ी रही / नज़ीर बनारसी
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हरदम मिरी अजल <ref>मृत्यु</ref> मिरे सर पर खड़ी रही
निगरानि-ऐ-हयात <ref>जिन्दगी की निगरानी</ref> भी कितनी कड़ी रही
पीछा न उनकी जुल्फें परीशाँ से छुट सका
उनकी बला भी मरे ही पीछे पड़ी रही
फुरकत <ref>वियोग</ref> की शब अदाये तमन्ना न पूछिये
इक हूर थी जो सर को झुकाये खड़ी रही
मिलते थे तो चैन न मिलता था बिन मिले
दिल में पड़ी लकीर तो बरसों पड़ी रही
हसरत के देने वाले अमानत सहेज ले
जैसी मिली थी वैसी की वैसी पड़ी रही
मैख्वारों <ref>शराबियों</ref> में वो हज़रते ज़ाहिद न थे ’नजीर’
रिन्दों में हाथ बॉंध के तोबा खड़ी रही
शब्दार्थ
<references/>