हरदम रहता नहीं एक-सा मौसम है / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
हरदम रहता नहीं एक-सा मौसम है
मानव का जीवन सुख-दुख का संगम है
कितना भी गहरा हो भर देता उसको
वक़्त बड़े से बड़े ज़ख़्म का मरहम है
कह देने से थोड़ा सा कम हो जाता
सह लेने से छू मन्तर हाता ग़म है
कितने ही बन जाते दोस्त बहारों में
नहीं ख़िज़ा में मिलता कोई हमदम है
दिन अच्छे हों तो काँटे भी गुल होते
बुरे दिनो में शोला होती शबनम है
जश्न जहाँ मनते, बजती है शहनाई
लाज़िम होता वहीं किसी दिन मातम है
नंगा पन तहज़ीब कहाता है जिसमें
नए दौर के फ़ैशन का यह आलम है
तन ढकने को चिथड़े नहीं नसीब कहीं
सुलभ किसी के लिए क़ीमती रेशम है
प्यार जहाँ है, धरती पर है स्वर्ग वहीं
बिना प्यार के घर बस एक जहन्नम है
पोंछ सकेगा कौन तुम्हारे अश्रु यहाँ
जिसको देखो आँख उसी की पुरनम है
सूरज से छोटा न कहो उस दीपक को
पी जाता जो आंगर का सारा तम है
‘मधुप’ शक्ति पाता पीड़ा से मनुज नई
पीड़ा से होता गीतों का उद्गम है