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हरवाह-बटोही सम्वाद / रमाकांत द्विवेदी 'रमता'

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हरवा जोतत बाड़े भइया हरवहवा कि आग लेखा बरिसेला घाम
तर-तर चूबेला पसेनवा रे भइया कि तनिए सा करिले आराम
चुप रहु, बुझबे ना तेहूँ रे बटोहिया कि राहे-राहे धरती के ताल
जइसे चूवे तन के पसेना रे बटोहिया कि ओइसे बढ़े धरती के हाल
हरवा जोतत बाड़े भइया हरवहवा कि सहि-सहि बरखा ले घाम
कबहूँ ना भरिपेट खइले करमजरूआ कि झूलि गइले ठटरी के चाम

हरवा जोतत मोरि जिनिगि सिरइली कि हरवा से नान्हें पिरीति
भरी छुधा जिनिगी में कहियो ना खइलीं कि इहे तोरा देशवा के रीति
खेतवा में बोईं ले जे बारहो बिरिहिनी कि लागेला जम्हार लेखा चास
कवना करमवां के चूक भइया हितवा, कि बाले-बचे सूतीं ले उपास
जोत-कोड़ कमती ना गंगा बढ़िअइली कि परुए से भइल ना सुखार
कवना करमवां में चूकलीं रे दइबा, कि तेहू पर रहलीं भिखार

देशवा के नाँव लेले भइया हरवहवा, कि देशवा में बड़का के राज
हमनी का भइलीं रामा गुलर के पिलुआ कि बड़का भइले दगाबाज
भइल बाटे तलफी भुँभरिया रे भइया कि हाली-हाली डेगवा बढ़ाउ
बोलिया जे बोलले पिरीतिया के भइया कि छँहरी बइठि बतिआउ
जेठ-बइशाखवा के अइन दुपहरिया कि रोएं-रोएं मार तारे धाह
मोरा लेखे भइया रे, दुनिया उलटली कि तोरा लेखे बबुरी तर छाँह

रचनाकाल : 14.08.1954