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हरा-भरा है देश / अज्ञेय

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हरे-भरे हैं खेत
मगर खलिहान नहीं :
बहुत महतो का मान-
मगर दो मुट्ठी धान नहीं।

भरा है दिल पर नीयत नहीं :
हरी है कोख-तबीयत नहीं।
भरी हैं आँखें पेट नहीं :
भरे हैं बनिये के कागज-
टेंट नहीं।

हरा-भरा है देश :
रुँधा मिट्टी में ताप
पोसता है विष-वट का मूल-
फलेंगे जिस में शाप।

मरा क्या और मरे
इस लिए अगर जिये तो क्या :
जिसे पीने को पानी नहीं
लहू का घूँट पिये तो क्या;

पकेगा फल, चखना होगा
उन्ही को जो जीते हैं आज :
जिन्हें है बहुत शील का ज्ञान-
नहीं है लाज।

तपी मिट्टी जो सोख न ले
अरे, क्या है इतना पानी?
कि व्यर्थ है उद्बोधन, आह्वान-
व्यर्थ कवि की बानी?

कोणार्क-कटक, 15 अप्रैल, 1957