भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरा दस्ताना / अरुण कमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शायद कभी गिरी थी बिजली इस पर
या कोई अज्ञात बीमारी खा गई इसे
भीतर ही भीतर, गल गया सारा शरीर
रह गया कंकाल केवल ठूँठ
जीवन से बहिष्कृत सड़क किनारे

किन्तु आज मैं पहचान नहीं पाया
क्षण भर को हो गया दिशाभ्रम--
ठीक ठूँठ के आकार में लगी थी वहाँ
ल त्त रों की नि या न सा इ न
दूर से धधकती
पूरा का पूरा लत्तरों से लदा था वह ठूँठ

पहली लत्तर ने एक दिन मुँह उठाकर
लिया होगा मन, कुछ दूर बढ़ी होगी ऊपर
फिर तो लत्तरों का रेवड़ पूरा
चढ़ा दनदनाते
और ठीक जैसे दस्ताना ढँक ले हथेली
वैसे ही ढाँप लिया ठूँठ वृक्ष को

अब तो वह ठूँठ हरा दस्ताना था
ज़ीरो माइल पर रास्ता बताता ।