भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरा पत्ता और पेड़ / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरा पत्ता लाख छटपटाए पेड़ भी चाहे
नहीं जुड़ सकते दोनों अलग होने के बाद
पत्तों की भीड़ में भी
कसकता रहता है पेड़ का मन
उस पत्ते के लिए
जो उसकी ही देह का हिस्सा था
पत्ते को भटकना ही होता है
सूखना ही पड़ता है समय से पहले
उड़ना होता है निर्मम हवा के संग
फिर नदी...पोखर...नाला या खेत
जैसी हो उसकी नियति
वैसे तो पूरी उम्र जीने के बाद
हर पत्ते की यही है परिणति
जानता है पेड़ फिर भी टूटता है
जब कोई हर पत्ता
फूट-फूटकर रोता है पेड़