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हरा पत्ता और पेड़ / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
हरा पत्ता लाख छटपटाए पेड़ भी चाहे
नहीं जुड़ सकते दोनों अलग होने के बाद
पत्तों की भीड़ में भी
कसकता रहता है पेड़ का मन
उस पत्ते के लिए
जो उसकी ही देह का हिस्सा था
पत्ते को भटकना ही होता है
सूखना ही पड़ता है समय से पहले
उड़ना होता है निर्मम हवा के संग
फिर नदी...पोखर...नाला या खेत
जैसी हो उसकी नियति
वैसे तो पूरी उम्र जीने के बाद
हर पत्ते की यही है परिणति
जानता है पेड़ फिर भी टूटता है
जब कोई हर पत्ता
फूट-फूटकर रोता है पेड़