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हरा हरा कर, हरा / माखनलाल चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
हरा हरा कर, हरा-
हरा कर देने वाले सपने।
कैसे कहूँ पराये, कैसे
गरब करूँ कह अपने!
भुला न देवे यह ’पाना’-
अपनेपन का खो जाना,
यह खिलना न भुला देवे
पंखड़ियों का धो जाना;
आँखों में जिस दिन यमुना-
की तरुण बाढ़ लेती हूँ
पुतली के बन्दी की
पलकों नज़र झाड़ लेती हूँ।