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हरिहर जेठालाल जरीवाला (संजीव कुमार) / रंजना मिश्र

(1)

दुख का रंग पर्दे पर उन दिनों गुलाबी था
नायिकाएँ दुख में भी गुलाबी नज़र आतीं
नायक मरून सिल्क के लूँगी कुर्ते में
उसी रंग की शराब के सहारे
प्रेम में हार का गम ग़लत किया करते
प्रेम अतिरंजना, दुख नाटकीयता और खुशी
मिलावट के रंगों से चिपचिपाती थी
तुम वहीं थे न उन दिनों हरि भाई?

(2)

पहलेपहल देखा था मैने तुम्हें इन्हीं दिनों
अपनी मोटी कमर पर उतनी ही चौड़ी बेल्ट कसे
छींट दार शर्ट के चौड़े कॉलर के ऊपर नज़र आती
छोटी सी गर्दन वाले चेहरे पर जड़ी उन आँखों के साथ
जो अक्सर चेहरे से निकलकर पूरी पृथ्वी को अपनी छांह में ले लेतीं
वह हँसी जो मुस्कुराते हुए भी न मुस्कुराने का ढब जानती थीं
खिलखिलाती आवाज़ कई बार दरअसल आँसुओं से भीगी नज़र आती
लौटा लाते थे तुम दुख को दुख के, हँसी को हँसी के
और इंसान को उसी इंसान के घर
पूरी टूट फूट और मरम्मत के साथ
धूरी पर घूमती हुई पृथ्वी
लौटा लाती है जैसे
दिन को दिन के और रात को रात के ही घर


(3)

उन दिनों भूल गई मैं पंजाब के उस कसरती नौजवान को भी
जिसकी हँसी पर कुर्बान हम कॉलेज कैंटीन की दीवारें उसके नाम से रंग दिया करते
पर सपनों में उसकी बगल खुद को पाने में हिचकिचाते
( हर उम्र के अपने संशय होते हैं )
पर तुम्हारी कहन में बस इंसान का होना ही पूरा था
अपनी पूरी विडंबना और मधुरता के साथ
तुम कहते थे दरअसल हर इंसान की कथा
जो नायक नहीं था
और बसते थे उस चमकती दुनिया में रूह की तरह
या रेशम के कीड़े की तरह
जो अपने ही धागे से कसता जाता है लगातार
तुम अपने ही प्यार में थे हरिभाई
या किसी स्वप्न से दन्शित

(4)

शतरंज की मोहरें तुमसे बेहतर कौन जान पाया होगा
तुमने ही तो दी थी खुद को शह और मात
उम्र के ठीक सैंतालीसवें साल मे
इतने किरदारों की इतनी उमरें जीकर तुम थक चले थे शायद
सो गए कोई अधूरी कहानी बीच में ही छोड़कर
तुम्हीं ने हमें बताया था
नायकों के नायक होने से पहले की सीढ़ी
उनका इंसान हो जाना है
और प्रेम, दुख, हास्य और सहजता में रंगकर
चाँदनी रातों में उन नक्काशीदार बेल बूटो की कथा कहनी है
जो दिन में ही नज़र आते हैं
तुम ही तो जानते थे बचे हुए को बचाए ले जाने का हुनर
औसत को बेहतर और बेहतर को असाधारण बनाने का हुनर
अपने जोड़ी भर पैरों पर पूरी ऊँचाई से खड़े तुम
जानते थे दुख को उसकी पूरी उज्ज्वलता में बरतने का हुनर
उन दिनों भी
जब दुख का रंग गुलाबी था !