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हरि-तन-पानिप के भाजन दृगंचल तैं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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हरि-तन-पानिप के भाजन दृगंचल तैं
उमगि तपन तैं तपाक करि धावै ना ।
कहै रतनाकर त्रिलोक-ओकमंडल में
बेगि ब्रह्मद्रव उपद्रव मचावै ना ॥
हर कौं समेत हर-गिरि के गुमान गारि
पल मैं पतालपुर पैठन पठावै ना ।
फैले बरसाने मैं न रावरी कहानी यह
बानी कहूँ राधे-आधे कान सुनि पावै ना ॥84॥