हरि के बदन तन धौं चाहि / सूरदास
हरि के बदन तन धौं चाहि सूरदास श्रीकृष्णबाल-माधुरी राग केदारौ
हरि के बदन तन धौं चाहि ।
तनक दधि कारन जसोदा इतौ कहा रिसाहि ॥
लकुट कैं डर डरत ऐसैं सजल सोभित डोल ।
नील-नीरज-दल मनौ अलि-अंसकनि कृत लोल ॥
बात बस समृनाल जैसैं प्रात पंकज-कोस ।
नमित मुख इमि अधर सूचत, सकुच मैं कछु रोस ॥
कतिक गोरस-हानि, जाकौं करति है अपमान ।
सूर ऐसे बदन ऊपर वारिऐ तन-प्रान ॥
भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं - (गोपी समझा रही है-) `श्याम के मुख की ओर तो देखो । यशोदा जी! तनिक-से दही के लिये इतना क्रोध क्यों करती हो ? तुम्हारी छड़ी के भय से भीत इसके अश्रु भरे नेत्र ऐसी शोभा दे रहे हैं जैसे भौंरौं के बच्चों द्वारा चञ्चल किये नीलकमल के दल हों । जैसे सबेरे के समय नालसहित कमलकोष वायु के झोंकों से झुक गया हो, उसी प्रकार इसका मुख झुका हुआ है और इसके ओष्ठों से संकोच के साथ कुछ क्रोध प्रकट होता है । गोरस की इतनी कितनी हानि हो गयी, जिसके लिये मोहन का अपमान करती हो । ऐसे सुन्दर मुख पर तो शरीर और प्राण भी न्योछावर कर देना चाहिये ।'