हरि हरि हँसत मेरौ माधैया / सूरदास
राग कान्हरौ
हरि हरि हँसत मेरौ माधैया ।
देहरि चढ़त परत गिर-गिर, कर पल्लव गहति जु मैया ॥
भक्ति-हेत जसुदा के आगैं, धरनी चरन धरैया ।
जिनि चरनि छलियौ बलि राजा, नख गंगा जु बहैया ॥
जिहिं सरूप मोहे ब्रह्मादिक, रबि-ससि कोटि उगैया ।
सूरदास तिन प्रभु चरननि की, बलि-बलि मैं बलि जैया ॥
भावार्थ :-- हरि-हरि! (कितने आनन्द की बात है) मेरा माधव हँस रहा है । देहली पर चढ़ते समय वह बार-बार गिर पड़ता है, मैया उसके करपल्लव को पकड़कर सहारा देती है । भक्ति के कारण(प्रेम-परवश) माता यशोदा के आगे वह पृथ्वी पर चरण रख रहा है (अवतरित हुआ है) । जिन चरणों से (जगत को तीन पद में नापकर) बलि राजा को उसने छला और अपने चरणनख से गंगा जी को (उत्पन्न करके) प्रवाहित किया, जिसके स्वरूप से ब्रह्मादि देवता मोहित (आशचर्यचकित) हो रहे, जिस (चरण के नख से) करोड़ों सूर्य-चन्द्र उगते(प्रकाशित होते) हैं, सूरदास जी कहते हैं--अपने स्वामी के उन्हीं चरणों पर बार-बार मैं बलिहारी जाता हूँ ।