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हरि हो, हम तरह तरह के वासना के पीछे / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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हरि हो,
हम तरह-तरह के वासना का पीछे
रात-दिन दउर रहल बानीं।
हम त जी-जान से, प्राणपन से,
खाली वासना के चाहना में बानीं।
तरह-तरह के वासना,
तरह-तरह के चहेठा।
तरह-तरह के लालसा,
तरह-तरह के लहेठा।
अनंत बा हमार वासना के आग।।

तबहूँ तूं हे हरि,
ओह सबसे हमरा के अलग करके
हमरा के बिल्कुल बँचा लेवे लऽ
तूं अपना कृपा के कठोर आँकुस से
वासना के आग से निकाल लेवे लऽ
हमरा के जरे से बँचा लेवेलऽ
वासना का भट्ठी में भसम होके का पहिलहीं
तूं हमरा के ओ में से खींच लेवेलऽ
धन्य हमार भाग्य,
कि तहरा बा कृपा करे के आदत
आ दया देखावे के बान!!
तहार ई कठोर कृपा,
(ओह घड़ी हमरा कठोरे बुझाला)

हमरा रोआँ-रोआँ में समाइल बा!
तहार एह कठोर कृपा से,
तहरा एह निठुराई से,
एह दया के बेदरदीपना से,
हमरा जीवन के कोना कोना अगराइल बा!!
तहार ई कठोर कृपा
हमरा रोआँ-रोआँ में समाइल बा!!
धन्य ह तहार कठोर कृपा,
धन्य तहार निष्ठुर दया,
जेसे हमार समूचा जीवन भरल बा!
समूचा जीवन भरल बा!!
ना चाहीं हमरा लोक, ना चाहीं परलोक!
का होई हमरा आकाश, आ का होई आलोक!!

नइखीं माँगत हम तहरा से-
तन-मन आ प्राण के भीख!
हमरा त बस अतने चाहीं हे हरि,, अतने चाहीं,
कि वासना के बान से, लालसा के लूह से,
अपना के बचा लेवे लायक हमरा में,
योग्यता दे द, शक्ति दे द!
इहे होई हे हरि,
हमरा खातिर तहार महादान!!
ठीक-ठीक जानीं ना
राह जवन जाला सीधे तहरा लगे;
तबो हे हरि, कबो-कबो,
तहरा के खोजत, कबो-कबो,
तहरा के खोजत-खोजत, भूलत-भटकत,

अनजाने में हम चल पड़िले ओही राहे,
जवन तहरे लगे जाला, हे हरि,
तहरे लगे जाला!!
बाकिर तूं
बल के बेदरदी, करके निठुराई,
सनमुख से सरक जालऽ
तनिए सा हट जालऽ!!
बाकिर हरि हो,
हम त बूझ गइलीं एकर मरम,
जान गइलीं एकर रहस्य,
अपना से मिलन खातिर
हमरा के योग्य बना रहल बाड़ऽ
हमरा में जे कमी बा, हमरा में जे खामी बा
ओके दूर करे खातिर
नाना नाच रहा रहल बाड़ऽ
विकट वासना से हमरा के बचाके,
लालसा के लूह-लपट से रक्षा क के,
हमरा के अपना से पूर्ण मिलन का योग्य
बना रहल बाड़ऽ!!

बूझ गईलीं तहरा कठोर कृपा के मरम,
समझ गईलीं तहरा निष्ठुर दया के रहस्य!!
बँचा ल, हे हरि, बँचा ल,
हमरा के वासना से बँचा ल!
हमरा के लालसा से बँचा ल!!
एकनी का भयंकर भट्ठी में
भसम होखे का पहिलहीं
बाँह हमर थाम्हल, जरे से बँचा ल!
बँचा ल हे हरि, बँचा ल!!