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हरी घास पीली दूबों पर / अनूप अशेष
Kavita Kosh से
हरी घास पीली दूबों पर
आतुर-सी,
बैठी हुई
प्रतीक्षाएँ
आँखों में भर
इन झरनों की गति
फूलों की महक
और लंबे पठार-सी एक उदासी,
भीगे-पल
टूटे सपनों की
यादें बासी।
कोई नहीं किसी गोधूली में आता
बछड़े से मिलने को
जैसे आती गाएँ
एक नदी का बहना
अपने भीतर-बाहर,
कितने-कितने प्रश्न
अनुत्तरित कुछ छूटे से,
सर से पाँव
रहे आदमकद
हम टूटे-से।
हल्की-हल्की धूप शाम की
होती-सी निर्वस्त्र
पेट से
जैसी माँएँ।