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हरेक आदमी बेघर है ज़िन्दगी के लिए / ज्ञान प्रकाश विवेक

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हरेक आदमी बेघर है ज़िन्दगी के लिए
कि जैसे राम भटकते थे जानकी के लिए

ये उस मल्लाह की पूजा नहीं तो फिर क्या है
जो अश्क रख गया सूखी हुई नदी के लिए

अजीब बात कि वो ससदमी था नाबीना
कि जिसने धूप चुराई थी रोशनी के लिए

पराए शहर में गर जानता नहीं कोई
तो ख़ुद से हाथ मिला ले तू दोस्ती के लिए

मशीनें लोरियाँ देंगी तमाम बच्चों को
ये होगा हादसा इक्कीसवीं सदी के लिए

मैँ जो मज़ार पे दीपक जला के आया हूँ
तड़प रहा है वो मंदिर की आरती के लिए.