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हरेक लम्हा उजालों के दिल में गड़ता हुआ / आलोक श्रीवास्तव-१
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हरेक लम्हा उजालों के दिल में गड़ता हुआ,
मैं इक चराग़ हूँ सूरज की ओर बढ़ता हुआ।
मेरी जड़ों में मठा डालने की भूल न कर,
कि सख़्त और भी होता है पेड़ झड़ता हुआ।
है सोच-सोच का अंतर कि फिर झुका हूँ मैं,
वो मेरे सामने आया है फिर अकड़ता हुआ।
मुझे ये डर है, रसातल न उसको ले जाए,
दिमाग उसका अहं के गगन पे चढ़ता हुआ।
हमारे सामने रिश्तों के ख़्वाब बिखरे हैं,
बहुत करीब से देखा है घर उजड़ता हुआ।