हरेराम समीप के दोहे-4 / हरेराम समीप
धरती तेरी गाय है, यूं मत इसे निचोड़
कुछ तो बछड़े के लिए, दूध थनों में छोड़
कहाँ ले गया नगर ये,सारे खेत समेट
इस लालच का क्या कभी,भर पायेगा पेट
‘फोरलेन’ की सड़क ने, रखे गाँव में पाँव
दफ़्न हुई पगडण्डियां भटक गई है छाँव
नहीं लगाया उम्र भर, तुमने कोई पेड़
लेकिन तय है अंत में, ले जाओगे डेढ़़
अपने भीतर का ज़हर, बस्ती बीच उड़ेल
खेल रही हैं वहशतें,यहाँ भयानक खेल
नफ़रत के इस युद्ध में, बहुत बह गया खून
बाँटो आज मुहब्बतें, कुछ तो मिले सुकून
अनपढ़ औ’ बेकार के, भड़काये जज़्बात
लगे हवा के हाथ फिर, सूखे-सूखे पात
उससे हम करते रहे, जीवन की फ़रियाद
भाता जिसकी जीभ को, सिर्फ ख़ून का स्वाद
अब भी अपना देश है, डर का बड़ा मरीज
यहाँ दवाओं से अधिक, बिकते हैं ताबीज
तेज़ आँच थी या कहीं,बर्तन में थी खोट
यूँ ही तो करता नहीं,कभी ‘कुकर’ विस्फोट
वहशी हाथों में गया, जब से धर्म-रिमोट
पीड़ा सड़कों पर मिली, जगह-जगह विस्फोट
फूल जहाँ करते सदा, आपस में सहयोग
उसी महकते बाग़ को, गुलशन कहते लोग
अपनेपन से पाऊँ मैं,हर मनचाही चीज
मेरी यह सद्भावना, मन्नत का ताबीज
यारो सादा ज़िंदगी, जीना टेढ़ी खीर
बहुत कठिन है खींचना, सीधी सरल लकीर
मैं जीवन का सत्य हूँ , तुम जीवन के भाव
ऐसा संभव ही नहीं, तुमसे हो अलगाव
दिल में तो रहने लगे, दुनिया भर के पाप
जगह बची इसमें कहाँ, जहाँ रहें प्रभु आप
पूजा, पंडित, पाठ ये, मंत्रों के अभ्यस्त
तेरे मेरे बीच प्रभु, कितने हैं मध्यस्थ
बस्ती को समझा गए, दो-प्रेमी ये मर्म
प्यार अभी ज़िंदा यहाँ, मरे सिर्फ दो धर्म
कैसे पूरी हो सके,नये वक्त की साध
अब भी अपने गाँव में,प्रेम एक अपराध
तुम्हें देखकर आ गया,मुझे बहुत कुछ याद
गहनों का बक्सा खुला,बड़े दिनों के बाद
सम्बंधों का दायरा, आज हुआ यूँ तंग
बेटा राज़ी ही नहीं, माँ को रखने संग
एक जुझारू शब्द को, जब मिल जाए ध्येय
उसकी हर पदचाप तब, हो जाती श्रद्धेय
चलो एक चिट्ठी लिखें,आज वक्त के नाम
पूछें दुख का सिलसिला, होगा कहाँ तमाम
संशय की मरुभूमि में, बोओ तो विश्वास
बारिश लेकर आएगा, चाहत का आकाश
तू भी यदि कविता-हवा, हो जाएगी मौन
फिर खुश्बू के सफ़र पर, साथ चलेगा कौन
कुरूक्षेत्र है ये नया, फिर है नया यथार्थ
शत्रु खड़ा है सामने, आँखें खोलो पार्थ
भूख, गरीबी, बेबसी, और दमन से मुक्त
चलो बनाएँ जिंदगी, जीने के उपयुक्त
जो जैसा जब भी मिला लिया उसी को संग
यारो मेरे प्यार का पानी जैसा रंग
केवल दुख सहते रहो,यही नहीं है कार्य
अपने दुख को शब्द भी,देना है अनिवार्य
फिर निराश-मन में जगी, नवजीवन की आस
चिड़िया रोशनदान पर, फिर से लाई घास