हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला / 'फ़ज़ा' इब्न-ए-फ़ैज़ी
हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
किताब का न कोई दर्स मोअतबर निकला
नफ़स तमाम हुआ दास्तान ख़त्म हुई
जो था तवील वही हर्फ़ मुख़्तसर निकला
जो गर्द साथ न उड़ती सफ़र न यूँ कटता
ग़ुबार-ए-राह-गुज़र मौज-ए-बाल-ओ-पर निकला
मुझे भी कुछ नए तीशे सँभालने ही पड़े
पुराने ख़ोल को जब वो भी तोड़ कर निकला
फ़ज़ा कुशादा नहीं क़त्ल-गाह की ये कहाँ
मेरे लहू का परिंदा उड़ान पर निकला
वो आदमी के जो महमिल था आफ़ताबों का
ब-क़द्र यक दो कफ़-ए-ख़ाक-रह-गुज़र निकला
ये रात जिस के लिए मैं ने जाग कर काटी
मिला वो शख़्स तो ख़्वाबों का हम-सफ़र निकला
उढ़ा दी चादर-ए-इस्मत उसे ख़यालों ने
हर एक लफ़्ज़ ज़बाँ से बरहना सर निकला
‘फज़ा’ तुम उलझे रहे फ़िक्र ओ फ़लसफ़ें में यहाँ
ब-नाम-ए-इश्क़ वहाँ क़ुरअ-ए-हुनर निकला