Last modified on 7 अक्टूबर 2013, at 13:04

हर इक फ़न में यक़ीनन ताक़ है वो / राही फ़िदाई

हर इक फ़न में यक़ीनन ताक़ है वो
अज़ल ही से बड़ा ख़ल्लाक़ है वो

जिसे तुम ने कहा था सम्म-ए-क़ातिल
अज़ीज़म असल में तिरयाक़ है वो

उसे संग-ए-तनफ़्फ़ुर से न रगड़ो
सुलग उट्ठेगा दिल चक़मसक़ है वो

ग़ुरूब-ए-सिदक़ का ख़दशा है बातिल
कहाँ मिन्नत-कश-ए-इशराक़ है वो

जरी इब्न-ए-शराफ़त नेक लड़का
क़बीले भर में लेकिन आक़ है वो

ब-बातिन आइना है क़ल्ब उस का
ब-ज़ाहिर सरवर-ए-फ़ुस्साक़ है वो

कहाँ से एहतिसाब-ए-नफ़स होगा
हिसाब-ए-दोस्ताँ बे-बाक़ है वो

मुक़फ़्फ़ल घर खुला है इक दरीचा
किसी की दीद का मुश्ताक़ है वो

जहाँ रक्खी है शम-ए-बे-सबाती
मिरी दीवार-ए-जाँ ताक़ है वो

अज़ाएम जिस पे पसपा हों सफ़र में
अमीर उस को कहें क़ज़्ज़ाक़ है वो

हवस भी क्या कोई ख़स्ता सुतूँ है
दरख़्त-ए-नारसा की साक़ है वो

बनाया उस ने सब को जुफ़्त ‘राही’
मगर हर ज़ाविए से ताक़ है वो