Last modified on 29 मार्च 2014, at 08:28

हर इक मंज़र बदलता जा रहा है / रईस सिद्दीक़ी

हर इक मंज़र बदलता जा रहा है
ये लम्हा भी गुज़रता जा रहा है

तिरा एहसास इक मुद्दत से मेरी
रग-ओ-पय में उतरता जा रहा है

शिकायत ज़िंदगी से करते करते
वो इक इक लम्हा मरता जा रहा है

पड़ा है जब से तेरा अक्स इस में
ये आईना सँवरता जा रहा है

वरक़ यादों के किस ने खोल डाले
मिरा कमरा महकता जा रहा हे

ये दुनिया तो सिमटती जा रही है
मगर इंसाँ बिखरता जा रहा है