हर इक शय किस कदर लगती नई थी
हवाले जब तेरे यह ज़िंदगी थी
ज़रा सी गुफ्तगू तुम से हुई जब
मेरी राहों में मंज़िल आ बिछी थी
अँधेरा पार कर आए कदम जब
बहुत मसरूर मुझ से रौशनी थी
मैं सहरा में चला आया मुसलसल
सुराबों में मची क्या खलबली थी
मैं सज धज कर वहाँ से हट गया था
मगर तस्वीर शीशे में खड़ी थी