हर एक मंज़िले-दुश्वार से गुज़रते हैं / अनु जसरोटिया
हर एक मँज़िले-दुश्वार से गुज़रते हैं
जो चल पड़े हों, वो कब क़ाफ़िले ठहरते हैं
ख़ुदा न बख्शे, कभी ऐसे बे-यक़ीनों को
जो कर के वादा, फिर उस वादे से मुकरते हैं
तुम्हीं बता दो ये ईमान से, किधर जाएँ
तुम्हारी चाह भी करते हैं, और डरते हैं
वो गीत जिन को सुने कुल जहाँ तवज्जो से
सुना है गीत वो आकाश से उतरते हैं
अमर शहीद कहाते हैं वो हर इक युग में
वतन की राह में जो जाँ निसार करते हैं
लजा सी जाती है उस दम फ़ज़ा ज़माने की
वो फूल टाँक के जूड़े में जब सँवरते हैं
ग़मों की आँच को समझो न तुम कभी बे-कार
ग़मो की आग में तप कर ही हम निखरते हैं
तू अपने ख़्वाब बिखरने का ग़म न कर कि यहाँ
जो आज खिलते हैं वो फूल कल बिखरते हैं
हिला भी देती है वो आह आस्मानों को
तड़प के भूख से जब लोग आह भरते हैं।