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हर एक लफ़्ज़ में पोशीदा इक अलाव न रख / फ़ारूक़ शमीम

हर एक लफ़्ज़ में पोशीदा इक अलाव न रख
है दोस्ती तो तकल्लुफ़ का रख-रखाव न रख

हर एक अक्स रवानी की नज़्र होता है
नदी से कौन ये जा कर कहे बहाओ न रख

ये और बात ज़माने पे आश्कार न हो
मिरी नज़र से छुाप कर तू दिल का घाव न रख

हिसार-ए-ज़ात से कट कर तो जी नहीं सकते
भँवर की ज़द से यूँ महफ़ूज़ अपनी नाव न रख

ये इंकिसार मुबारक ‘शमीम’ तुझ को मगर
अब इतना शाख़-ए-समर-दार में झुकाव न रख