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हर क़दम पर खौफ़ की सरदारियाँ रहने लगें / द्विजेन्द्र 'द्विज'
Kavita Kosh से
हर क़दम पर खौफ़ की सरदारियाँ रहने लगें
क़ाफ़िलों में जब कभी ग़द्दारियाँ रहने लगें
नीयतें बद और कुछ बदकारियाँ रहने लगें
सरहदों पर क्यों न गोलाबारियाँ रहने लगें
हर तरफ़ लाचारियाँ,दुशवारियाँ रहने लगें
सरपरस्ती में जहाँ मक्कारियाँ रहने लगें
हर तरफ़ ऐसे हक़ीमों की अजब—सी भीड़ है
चाहते हैं जो यहाँ बीमारियाँ रहने लगें
फिर खुराफ़त के जंगल क्यों न उग आएँ वहाँ
जेह्न में अकसर जहाँ बेकारियाँ रहने लगें
क्यों न सच आकर हलक में अटक जाए कहो
गरदनों पर जब हमेशा आरियाँ रहने लगें
उनकी बातों में है जितना झूठ सब जल जाएगा
आपकी आँखों में गर चिंगारियाँ रहने लगें
है महक मुमकिन तभी सारे ज़माने के लिए
सोच में ‘द्विज’, कुछ अगर फुलवारियाँ रहने लगें.