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हर क़दम पे दार मक्तल था मुक़ाबिल / विकास जोशी

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बुलंदी तू चाहे कहीं पे रखा कर
मगर पांव अपने ज़मीं पे रखा कर

नुमायां न कर दर्द दिल के ज़ुबां पर
जो शै है जहां की वहीं पे रखा कर

वो ना पूछ बैठें हिसाबे मशक्कत
सजा के पसीना जबीं पे रखा कर

भले लूट ले तू अमानत मेरी सब
मगर हक़ मेरा सब यहीं पे रखा कर

बशर हैं के हम भी न जाएं बहक यूं
निशाने तेरे तू हमीं पे रखा कर

तेरी मुन्तज़िर मंज़िलें राह में हों
हमेशा कदम इस यकीं पे रखा कर

ये मोती हैं चाहत के आंसू नहीं हैं
हिफाज़त से तू आसतीं पे रखा कर