भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हर की पौड़ी से (4) / संजय अलंग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पवन, धाराप्रवाहित है
बढ़ रही लाठी टेकती बुढ़िया
बच्चे बैग लटकाए यूनिफ़ार्म डाले जा रहे हैं
घोंसलों से पक्षी उतर रहे हैं
चाय की केतली भाप छोड़ रही है
चलने को आतुर है, छाती से चिपका लाड़ला
सुकुमार रूपसी असहज है
छिपता नहीं बदन