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हर की पौड़ी से (5) / संजय अलंग
Kavita Kosh से
बहती कहीं पसीने की धारा
तो कहीं गेंदा बन सिमटती गंगा में
सिक्के को लगातार बटोरते जा रहे हैं
क़लम छिटक गई है
गली का शोर जगा नहीं पा रहा है
टिमटिमा रहे है अक्स, पर मौन
कलरव भी नहीं
कान सुन्न दिमाग़ क्लान्त
आवाज़ तो है, पर आवाज़ नहीं
पानी तो है, पर पानी नहं
धार तो है, पर धारा नहीं
बड़ी अभी भी सुलग रही है
पीछा है, आहटों का
भगता जैसे झूमना घातक होगा
दूर निकल गई चाहते, रोकते
उस पार, दूर पेड़ से
टूटकर पत्ता गिरा छप से
आवाज़ कोई सुन न सका