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हर कोई अपनी अना की क़ैद में मक्फूल है / अजय अज्ञात
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हर कोई अपनी अना की क़ैद में मक्फूल है
मालो ज़र को जोड़ने में रात-दिन मशगूल है
हौसला है बा ुओं में दम भी है बाक़ी अभी
मुझ को है इमक़ान मुस्तक़बिल मेरा मस्कूल है
तेरी नज़रों में भले कुछ ख़ास वो इन्सां नहीं
कुछ तो है उस में जो सब के बीच वो मक़बूल है
सच तेरे बिन एक पल भी रहना है दुश्वार अब
तू भी मेरी आदतों में हो गया मशमूल है
ज्योतिषों के चक्करों में मत पड़ो ‘अज्ञात’ तुम
नेक कामों के लिए हर वक़्त ही माकल है