हर ग़लती से सबक़ लो
सीख लिया आख़िर उसने,
कंठ में ही दुख को घोंट लेना,
फिर बोल लेना मिसरी घोलकर
आंसुओं को पिपनियों पर लोककर
सहज होकर फिर से मुख़ातिब होना,
तथाकथित विकसित समाज से
हर दिन इंच भर ऊपर होते आज से
क्योंकि उसने सोच लिया है
अब रोना नहीं उसे, किसी अपने के समक्ष
वो अपना ही क्या जो ना समझ सके
आँखों की भाषा, ना ही रिश्तों की परिभाषा
या तुम्हारी आकांक्षा-अभिलाषा
स्वयं पर भरोसा है, आस है
दूसरों की नब्ज टटोलते रहने की,
फ़ुरसत अब किसके पास है
रिश्ते जब ख़ुशियाँ नहीं मजबूरी बन जाएँ
कंधे जब थक जाएँ
ढोवो नहीं, झाड़कर उतार दो
सोचती है माँ आज,
बेटियाँ अनब्याही ही अच्छी हैं
ज़िंदगी अपनी तरह जी तो लेती हैं
स्वयं पर निर्भर हैं, बेटों से बढ़कर हैं
उनकी ख़ुशी उनके हाथों में होती हैं
उनकी आँखों में नहीं, मुस्कान में मोती है
क्यों किसी आरामतलब ग़ैर के बेटे की हाथों में
बेटी का हाथ थमाना, उसकी भी मजबूरियाँ बढ़ाना
अपने आंसुओं को कंठ में घोंटना सिखाना
हर ग़लती से सबक़ लो,
समाज को भी भुगतने का हक़ दो !