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हर घड़ी रौंदा दुखों की भीड़ ने संत्रास ने / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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हर घड़ी रौंदा दुखों की भीड़ ने संत्रास ने

साथ अपना पर नहीं छोड़ा सुनहरी आस ने


आश्वासन, भूख, बेकारी, घुटन , धोखाधड़ी

हाँ, यही सब तो दिया है आपके विश्वास ने


उम्र भर काँधों पे इतना काम का बोझा रहा

चाहकर भी शाहज़ादी को न देखा दास ने


उस परिंदे का इरादा है उड़ानों का मगर

पंख उसके नोंच डाले हैं सभी निर्वास ने


अपने हिस्से में तो है इन तंग गलियों की घुटन

आपको तोहफ़े दिए होंगे किसी मधुमास ने


किस तरफ़ अब रुख़ करें हम किस तरफ़ रक्खें क़दम

रास्ते सब ढँक लिए हैं संशयों की घास ने


जल रहा था ‘रोम’, ‘नीरो’ था रहा बंसी बजा

हाँ मगर, उसको कभी बख़्शा नहीं इतिहास ने