हर घड़ी हर पल हरेक इंसान का / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हर घड़ी हर पल हरेक इंसान का
है खुला मेरे लिये हर द्वार।
आदमी हूँ इसलिये मजबूर हूँ
प्यार करता हूँ हरेक इंसान को;
और हर इंसान के अन्दर सदा
ढूँढ़ता अपने छिपे भगवान को।
मन्दिरों औ’ मस्जिदों के जग भले
खोल दे या बंद करले द्वार;
किन्तु हर इंसान का हर क्षण यहाँ
है खुला मेरे लिये हर द्वार॥1॥
देवता मैं हूँ नहीं, हूँ आदमी
इसलिये कमजोरियों का कोष हूँ;
और भूलें भी हजारों ही हुईं
किन्तु फिर भी मैं स्वयं निर्दोष हूँ।
क्योंकि जो कुछ भी हुआ, अनजान में
है हुआ, यह सब मुझे स्वीकार;
झाँक ले कोई नयन निर्मल स्वयं
है खुला मेरे हृदय का द्वार॥2॥
आँधियाँ आयीं, मगर पा स्नेह-बल
दीप बन तिल-तिल सदा जलता रहा;
दहकते अंगार भी पथ पर बिछे
किन्तु हँस-हँसकर सदा चलता रहा।
आज जीवन की तरी तट छोड़कर
आ फँसी बहती हुई मँझधार;
किन्तु है परवाह कब किस बात की
हर लहर मेरे लिये पतवार॥3॥
रह चुका हूँ मैं मरुस्थल में जहाँ
आग पी-पी कर बुझाते प्यास हैं;
और लपटों के कफन से ढँक तन
सैकड़ों जीती जलाते लाश हैं।
इसलिये मैं कहरहा मत व्यर्थ ही
शूल की शैय्या करो तैयार;
क्योंकि हर एक शूल उसका फूल बन
खुद करेगा हाथ से शृंगार॥4॥