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हर चोट पे पूछे है बता याद रहेगी / कलीम आजिज़
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हर चोट पे पूछे है बता याद रहेगी
हम को ये ज़माने की अदा याद रहेगी
दिन रात के आँसू सहर ओ शाम की आहें
इस बाग की ये आब ओ हवा याद रहेगी
किस धूम से बढ़ती हुई पहुँची है कहाँ तक
दुनिया को तेरी जुल्फ-ए-रसा याद रहेगी
करते रहेंगे तुम से मोहब्बत भी वफा भी
गो तुम को मोहब्बत न वफा याद रहेगी
किस बात का तू कौल ओ कसम ले है बरहमन
हर बात बुतों की ब-ख़ुदा याद रहेगी
चलतें गए हम फूल को बनाते गए छाले
सहरा को मेरी लग्ज़िश-ए-पा याद रहेगी
जिस बज़्म में तुम जाओगे उस बज़्म को ‘अज़िज’
ये गुफ्तुगू-ए-बे-सर-ओ-पा याद रहेगी